भारतीय समाज में गुरु शिष्य परंपरा का प्राचीन काल से बहुत महत्त्व है । वैद काल में ब्रह्मचार्य आश्रम में बच्चों का शैक्षिक काल गुरुकुल में बीतता था । गुरुकुल में ब्रह्म मुहूर्त से ही जीवन चर्या शुरू हो जाती थी , जो ब्रहम मुहूर्त में स्नानं आदि से शुरू हो कर , योग, मंत्रोच्चारण, पूजा , हवन आदि से समाप्त होती थी । उसके बाद पूर्वाह्न में वैद , विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष आदि की शिक्षा दी जाती थी । मध्यान में गुरु के प्रवचन व् शस्त्रों को चलाने , शारीरिक व्यायाम , खेल आदि होते थे । संध्या काल होते ही पूजा अर्चना व् रात्रि के भोजन के बाद जल्दी शयन की प्रक्रिया होती थी ।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह दिन चर्या राज कुमार से लेकर सभी शिष्यों के लिए एक समान होती थी । उस समय वर्ण व्यवस्था का प्रचलन था पर उसके विरोधाभास के प्रमाण भी है । जहाँ तक गुरु शिष्य परम्परा का प्रश्न है इसका ज्ञान सभी को था व् गुरुओं के प्रति असीम श्रधा का प्रचालन था ।
गुरु द्वारा सराहा जाना एक सम्मान व् गुरु द्वारा दोषरोपण एक गंभीर अपराध व् ग्लानिपूर्ण कृत्य माना जाता था । गुरु को दंड आदि देने के असीमित अधिकार थे , जिससे गुरुकुल के बाद शिष्य अनुशासित व् जिम्मेदार नागरिक बनते थे । जिससे देश का विकास व रक्षा होती थी ।
राज दरबार में गुरु का स्थान राजा के समक्ष होता था व् राजा राजगुरु से शासन , युद्ध , राज्य में अनुशासन , आर्थिक व् सुरक्षा के सभी मामलों में सलाह लेते थे ।
समय के साथ गुरुकुल का भी विशेषज्ञता के अनुसार नामकरण होने लगा । संगीत व् कला के क्षेत्र में अनेक गुरुकुल खुल गए । धातु शास्त्र , रसायन शास्त्र व् भौतिकी के अपने गुरुकुल ।
समय के साथ अलग अलग गुरुकुलों के खुलने पर भी गुरु शिष्य परम्परा में कोई बदलाव नहीं आया । गुरु का स्थान सर्वोच्य व् शिष्य का स्थान गुरु चरणों में रहा । गुरु भक्ति शिष्य का धर्म माना जाता रहा । गुरु आज्ञा का पालन शिष्य का परम कर्तव्य माना जाता रहा ।
बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ , गुर गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पाए आदि छंदों ने गुरु के स्थान की अतिउत्तम व्याख्या की व् समाज का मार्गदर्शन किया ।
समाज के भोगोलीकरण के साथ गुरुकुल के संख्या में कमी आने लगी व् गुरु शिष्य परम्परा लुप्त होने लगी, यहाँ तक कि यदि अध्यापक ने किसी बच्चे को कोई दंड दे दिया तो आज काल माता पिता पुलिस में FIR कर देते है । आज गुरुकुल, शिक्षालय बन गए है व्यवसाय बन गए हैं ।
इन सबके रहते कुछ क्षेत्र आज भी ऐसे हैं जिनमे गुरु शिष्य परंपरा जीवित है व् प्रचलन में है । यह क्षेत्र है कला, खेल , संगीत , शिक्षा आदि ।
बड़े से बड़े व्यक्तित्व ने कही न कहीं अपने व्यक्तिगत अनुभवों का वर्णन करते हुए एक ही बात कही है कि सबसे महत्वपूर्ण बात जो गुरु शिष्य परंपरा सिखाती है व् प्रमाणित करती है कि बिना गुरु सेवा , गुरु ज्ञान , गुरु कृपा के कोई भी ज्ञान नहीं पाया जा सकता । डिग्री ले लेना एक बात है पर विषय का सम्पूर्ण ज्ञान बिना गुरु के असंभव है क्यूंकि गुरु सिखाते समय अपना अनुभव भी उसमे मिलाकर ज्ञान देते है ।
मैंने भी जीवन में कई विधाओं में अपने गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया । कई बार ऐसा हुआ कि मेरी उम्र व् अन्य क्षेत्रो में मेरा अनुभव कई वर्षों का होने से मैं उस विषय विशेष के गुरु की उम्र में भी ज्यादा रहा , तब भी मैंने गुरु शिष्य परंपरा के नियमो का सख्ती से पालन किया ।
इसलिए मैं भी स्वीकारता हूँ कि गुरु के प्रति अटूट विश्वास , अंध भक्ति , निश्वार्थ सेवा भाव व् आदर ही एक रास्ता है जिससे कठोर से कठोर दिखने वाले गुरु भी अपना ज्ञान का दान दे देते है , क्यूंकि गुरु की कठोरता आपको सही ज्ञान देने के लिए होती है दंड देने या प्रताड़ित करने के लिए नहीं , यह विश्वास होना जरुरी है ।
शिष्य, गुरु का गुरुर होता है व् गुरु, शिष्य की आस्था होती है ,और आस्था बेशर्त ही होती है । गुरु का अपने शिष्य के प्रति प्रेम भी अथाह होता है ।
मेरी माँ मेरी पहली गुरु थी व् श्री बद्री नारायण जी शास्त्री मेरे अध्यात्मिक गुरु थे । उनके बाद विभिन विषयों व् क्षेत्रों में मेरे 15 गुरु रहे है जिनसे मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ व् जीवन में सद्मार्ग मिला । मेरे जीवन की सफलता में मेरे गुरु शिष्य परंपरा के ये १२ मन्त्र फलीभूत हुए है, जिनका मैंने पूर्ण श्रधा से ताउम्र पालन किया ।
१. गुरु को संवाद का पहला अधिकार
२. गुरु से केवल सुनने, ज्ञान व आशीर्वाद प्राप्ति की कामना करें
३. गुरु से कोई सामाजिक व व्यक्तिगत बातें न करना
४. गुरु की निंदा न करें व न सुनें
६. गुरु हमेशा सही है , अगर उनसे कुछ गलती हो भी गयी है तो वो अपनी गलती को पहचानने व उसे सही करने में सक्षम है
७. गुरु के आगे केवल शीश नमन की ही मुद्रा रखे
८. जितनी बार आप गुरु के चरण स्पर्श करेंगे , आपका सौभाग्य उतना ही गुणित होगा
९. जीवन की यात्रा में कई गुरु ढूँढने होते है ,क्यूँकि हर गुरु की एक या कुछ विशेषताएँ होती है , वो सर्वज्ञानि हो ऐसा ज़रूरी नहीं । कभी भी किसी गुरु को भुलाना नहीं ।
१०. जब तक आप लक्ष्य पहुँचने के लिए अपने आप में कमी (क्या सीखना है) ढूँढने में सही साबित होंगे , तो ही आप सही गुरु ढूँढने में भी सफल होंगे व आप अपना लक्ष भी प्राप्त कर सकेंगे ।
११. गुरु से बहस के लायक़ आप कभी भी ना पाओगे , बत्तमीजी के लिए कोई क़ाबिलियत की ज़रूरत नहीं !
१२. गुरु से नाराज़गी व क्रोधित होने में नुक़सान स्वयं का ही है
- शिष्य में सीखने की जिज्ञासा ही उसकी सफलता की ऊँचाई निर्धारित करती है